चैन तो धरती छोड़कर भी नहीं मिलता ना...
अब किसने ये सोचा था कि परलोक में भी कस्टम अफ़सर मिल जायेंगे?
सूटकेस तो छोड़ के आना था प्लेटफार्म पर, लेकिन आख़िरकार उसे पीछे नहीं छोड़ पाया मैं...
क्या करता, कुछ क़ीमती चीज़ें अब भी बाकी थीं उसमें...
पर इन कमबख्तों ने उन्ही पर आब्जेक्शन लगा दिया!
एक टी-शर्ट मिली, कुछ पसीने से महकी हुई
एक लाल रंग का तौलिया, जिसमें से नमी गायब नहीं हुई थी अब तक
सिगरेट का एक आधा-अधूरा सा पैकेट
बस के दो टिकट
सब माया की निशानियाँ थीं, जो उसे वापस करनी थीं...
एक कलश मिला, मामा की अस्थियों का
माँ के आँसुओं से भीगा एक कुरता मिला
डब्बा भरकर गंगाजल भी था, अपने तर्पण से चुराया हुआ...
ये सब चल जाता...
लेकिन उस सूटकेस में कुछ किरचें भी बरामद हुईं
तेज़, नुकीली किरचें
जो कभी ज़बान पर आकर अटक जाया करती थीं
कभी गले में खरोंचें मारती चलती थीं...
किरचें कुछ अधूरी नज़्मों, कुछ टूटे ख़्वाबों की
इसीलिए शायद मुझे इस 'परगेटरी' में रखा गया है...
खुदा के फैसले के इन्तेज़ार में...
हवलदार मुझे लेकर जा रहा है कोर्टरूम...
और सामने भूरे रंग का शौल लपेटे उस न्यायमूर्ति ने ठोक-बजाकर
फ़ैसला कर ही लिया...
एक महीना हुआ नहीं जन्नत की दहलीज़ पार किए,
और फ़रमान सुना दिया उसने दोज़ख में पहुंचाने का...
क्या उसे भी जीना माया ने ही सिखलाया था?
जानता है वो की माया ने मुझे देख लिया तो उसका पत्ता कट जाएगा
जलता है वो मुझसे...
Wednesday, September 24, 2008
इजाज़त
(An ode to my Guru, Gulzar-sahab's eponymous film... written on August 2)
इस इजाज़त पर आकर कहानी ख़त्म नहीं हुई
अभी तो सिर्फ़ सुर्ख़ सूरज दिखाई दिया है पहाड़ पर
सात बजे की गाड़ी फिर कमबख्त लेट है...
सुधा दूर प्लेटफ़ार्म की घड़ी के नीचे सो रही है
अपने पति के काँधे को बालों से ढककर
जहाँ एक तिल होना तो था, मगर हो न सका...
सुधा, जिसने क़ुरबानी दी थी मेरे लिए
आज ख़ुश है, मगर रोई बहुत कल रात
शायद मेरा आना ही उसके लिए ग्रहण बन जाता है
जब दादू ने पहली बार फ़रमान सुनाया था शादी का
फूट-फूट कर रोई थी सुधा, न जाने क्यूँ
क्या उसे मालूम था की उसी दिन छिन रहा था उसका सुकूँ?
जब में शहर गया, तो मन में सुधा थी, हाथ में अंगूठी
जब वापस आया, तो शायद भूख खा गयी थी दोनों
क़ीमती चीज़ें अक़्सर भूख मिटाने में मिट जाया करती हैं...
सुधा भी मिट चुकी थी...
माया से मुलाक़ात हुई, तो लगा ज़िंदगी ने गले लगा लिया...
रात की कालिख़ से लुका-छुपी खेलने का शौक़ तो चाँद को भी होता है
पर माया... माया इशारों पे नचाना जानती थी उन्हें
लफ़्ज़ के मानी पूछती थी, फिर उन्हीं की झड़ी तय्यार हो जाया करती थी...
मैंने जब पहली बार पूछा शादी के लिए, तो सुधा का ख़याल नहीं आया...
आया तो माया का जवाब - की बदसूरत बच्चे मुझे पसंद नहीं
और एक ख़त भेज दिया मेरे नाम...
'हंसाओ मुझे' लिखकर...
खेल खेलने का शौक़ था न तुम्हें माया?
लो, हार मान गया मैं, अब तो आ जाओ!
कहाँ छुपी हो? हाँ, बादलों के बिस्तर पर सो रही हो...
अपनी बचपन की दोस्त, मौत के साथ...
तुम दोनों का प्यार आखिर जन्नत तक पहुँच ही गया
फिर कल रात, वादी जब भीग रही थी बारिश में
सुधा से टकरा गया, उसकी ज़िंदगी में एक और रात बनकर
शायद वो पावर-कट भी यही याद दिलाने को था
ख़ैर अब हाथ में सिगरेट लिए मैं जनरल का
और तुम फ़र्स्ट-क्लास का इन्तेज़ार कर रही हो
तुम्हें इजाज़त देने वाला मैं कौन हूँ सुधा?
इजाज़त तो मुझे तुमसे लेनी चाहिए थी
तुम्हें घोल के पी जाने से पहले...
राहगीर हूँ, मुसाफ़िर हूँ, आज यहाँ तो कल कहाँ
इजाज़त मुझे माया से ले लेनी चाहिए थी
ताकि बिना बताये मिलने जाने का बुरा न लगता उसे
ख़ैर, अब तो मिलने जा ही रहा हूँ
लो! ट्रेन भी आ रही है...
सुधा, इजाज़त?
मैं, महेंद्र, जा रहा हूँ
एक छोटी-सी कहानी, कुछ सामान
कुछ क़तरे आवाज़ के छोड़कर
इस सूटकेस में...
खाली हाथ, माया के पास...
इस इजाज़त पर आकर कहानी ख़त्म नहीं हुई
अभी तो सिर्फ़ सुर्ख़ सूरज दिखाई दिया है पहाड़ पर
सात बजे की गाड़ी फिर कमबख्त लेट है...
सुधा दूर प्लेटफ़ार्म की घड़ी के नीचे सो रही है
अपने पति के काँधे को बालों से ढककर
जहाँ एक तिल होना तो था, मगर हो न सका...
सुधा, जिसने क़ुरबानी दी थी मेरे लिए
आज ख़ुश है, मगर रोई बहुत कल रात
शायद मेरा आना ही उसके लिए ग्रहण बन जाता है
जब दादू ने पहली बार फ़रमान सुनाया था शादी का
फूट-फूट कर रोई थी सुधा, न जाने क्यूँ
क्या उसे मालूम था की उसी दिन छिन रहा था उसका सुकूँ?
जब में शहर गया, तो मन में सुधा थी, हाथ में अंगूठी
जब वापस आया, तो शायद भूख खा गयी थी दोनों
क़ीमती चीज़ें अक़्सर भूख मिटाने में मिट जाया करती हैं...
सुधा भी मिट चुकी थी...
माया से मुलाक़ात हुई, तो लगा ज़िंदगी ने गले लगा लिया...
रात की कालिख़ से लुका-छुपी खेलने का शौक़ तो चाँद को भी होता है
पर माया... माया इशारों पे नचाना जानती थी उन्हें
लफ़्ज़ के मानी पूछती थी, फिर उन्हीं की झड़ी तय्यार हो जाया करती थी...
मैंने जब पहली बार पूछा शादी के लिए, तो सुधा का ख़याल नहीं आया...
आया तो माया का जवाब - की बदसूरत बच्चे मुझे पसंद नहीं
और एक ख़त भेज दिया मेरे नाम...
'हंसाओ मुझे' लिखकर...
खेल खेलने का शौक़ था न तुम्हें माया?
लो, हार मान गया मैं, अब तो आ जाओ!
कहाँ छुपी हो? हाँ, बादलों के बिस्तर पर सो रही हो...
अपनी बचपन की दोस्त, मौत के साथ...
तुम दोनों का प्यार आखिर जन्नत तक पहुँच ही गया
फिर कल रात, वादी जब भीग रही थी बारिश में
सुधा से टकरा गया, उसकी ज़िंदगी में एक और रात बनकर
शायद वो पावर-कट भी यही याद दिलाने को था
ख़ैर अब हाथ में सिगरेट लिए मैं जनरल का
और तुम फ़र्स्ट-क्लास का इन्तेज़ार कर रही हो
तुम्हें इजाज़त देने वाला मैं कौन हूँ सुधा?
इजाज़त तो मुझे तुमसे लेनी चाहिए थी
तुम्हें घोल के पी जाने से पहले...
राहगीर हूँ, मुसाफ़िर हूँ, आज यहाँ तो कल कहाँ
इजाज़त मुझे माया से ले लेनी चाहिए थी
ताकि बिना बताये मिलने जाने का बुरा न लगता उसे
ख़ैर, अब तो मिलने जा ही रहा हूँ
लो! ट्रेन भी आ रही है...
सुधा, इजाज़त?
मैं, महेंद्र, जा रहा हूँ
एक छोटी-सी कहानी, कुछ सामान
कुछ क़तरे आवाज़ के छोड़कर
इस सूटकेस में...
खाली हाथ, माया के पास...
Monday, September 08, 2008
Anger Management
Why is it that people HAVE TO ruin my good days? All good and sunny from 7am to 11pm then KA-BOOM, and shit flies...
Bubbling with gall
Lava on rise and fall
Drive your head against the wall...
Piece of shit, FUCK IT ALL!
Bubbling with gall
Lava on rise and fall
Drive your head against the wall...
Piece of shit, FUCK IT ALL!
Thursday, September 04, 2008
Redemption Requiem
And so the circle is complete...
There stands Prufrock again
At the bottom of the stairs
Bald, rail-thin
Still fumbling with his peaches and tie-pin
But on his way out the door
The party's over
Michelangelo lives
To be discussed tomorrow...
The suitcase still lies on the platform
Nowhere is he to be found...
The clock strikes 2 A.M.
It's been years since he's gone...
Taking refuge in some corner of a dark alley maybe
Darkness, the old friend, has embraced him again
The lure of the world gave up trying to seduce him
Other willing partners for this mime have been found...
The curtain drops on the show
The public leaves, murmuring about the performance
In a crescendo of engine sounds
Screeching tyres and clouds of dust...
Dust, dust again...
He likes to breathe it, when he can...
Ash, ground in dust
Ms Fire, thou hast done well
The half-lived life
A life well-lived...
Tired of lying in the darkness
He emerges, billowing smoke
Crumples it underfoot
No stub.
There stands Prufrock again
At the bottom of the stairs
Bald, rail-thin
Still fumbling with his peaches and tie-pin
But on his way out the door
The party's over
Michelangelo lives
To be discussed tomorrow...
The suitcase still lies on the platform
Nowhere is he to be found...
The clock strikes 2 A.M.
It's been years since he's gone...
Taking refuge in some corner of a dark alley maybe
Darkness, the old friend, has embraced him again
The lure of the world gave up trying to seduce him
Other willing partners for this mime have been found...
The curtain drops on the show
The public leaves, murmuring about the performance
In a crescendo of engine sounds
Screeching tyres and clouds of dust...
Dust, dust again...
He likes to breathe it, when he can...
Ash, ground in dust
Ms Fire, thou hast done well
The half-lived life
A life well-lived...
Tired of lying in the darkness
He emerges, billowing smoke
Crumples it underfoot
No stub.
Subscribe to:
Posts (Atom)