Sunday, December 14, 2008

मौत, एक कविता...

"क्यूँ मुहँ लटकाए खड़े हो भई?"

"कोई अपना गया है... नाचूं उसके जाने की खुशी में?

ज़िन्दगी भर
ज़िन्दगी से लड़ते-लड़ते कमज़ोर पड़ गया था वो...
आखिरकार ज़िन्दगी ने क्या नहीं फेंक के मारा उसे?

ऐसा लगा कि कोई एहसान रह गया था ज़िन्दगी का उसके सर
जिसे चुकाने में आना-कानी कर बैठा बेचारा
या फिर ऐसा तो नहीं था, कि किसी का कुछ बिगाडा हो
और ऐन उसी वक्त ख़ुदा उठा हो अपनी लम्बी नींद से
और नज़र आ गया हो उसे वो शख्स

अब ख़ुदा पर तो कोई क्या ऊँगली उठाये
लेकिन नानी हमेशा कहती थीं
कि अगर सच्चे मन से माफ़ी मांग लो, तो ख़ुदा का दिल भी पिघल जाता है
लेकिन कहने को तो वो ये भी कहती थीं कि अच्छा कर्म करो
तो फल बुरा हो ही नहीं सकता

फिर क्यूँ ऐसा हुआ कि दुनिया को खुश करने वाला
कल चिता पर लेटा था
और पूछनहारों कि क़तार में कितने मगरमच्छ खड़े थे
ये भी वो ऊपरवाला ही जानता होगा
अगर उसकी आँख फिर न लग गई हो तो...

ख़ैर, ये सब बातें भूलिए साहब, इनमें रखा क्या है
इंसान की फ़ितरत तो सिर्फ़ इतनी है
कि जो सामने होता है, ध्यान उसपर आ जाता है
जो गया, वो कितने वक़्त तक दिमाग़ में घर बनाये रह सकता है बेचारा?

कुछ आंसू बहेंगे,
उस सोते हुए ख़ुदा को कुछ लोग कोसेंगे...
ज़िन्दगी चलती जायेगी
आखिरकार
साँस लेना एक ऐसी लत है जो छूटे नहीं छूटती
जो छोड़ पाया, उसे क्यूँ न ख़ुदा बुला लें?"

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