Wednesday, May 18, 2011

सफ़ेदपोश


अजीब चीज़ हैं ये गुलज़ार साहब भी...
न जाने कमरे के कौन से कोने-अतरे
या दरवाज़े की चिंक से निकले चले आते हैं
जैसे कभी गायब हुए ही न थे...
चौंक के देखो तो कहते हैं 
"चेहरे के नक्श सब धुल गए"...

कभी तन्हाई ओढ़के 
लेटे रहने का मन करता है,
जब आँखों की सीलन 
जून की गर्म हवा में
टीस मारने लगती है,
तो पास आकर बैठ जाते हैं...
सर पे हाथ फेरते हुए 
पुचकार जाते हैं 
कोई नज़्म ज़बां पर लगाकर...

पब्लिक में मिलो तो
हाथ पकड़कर भी अनजान बनते हैं,
कहते हैं "मेरे बचपन में आप कहाँ पैदा हुए होंगे"...
और फिर वही हाथ पकड़कर
वो परछाईं दिखा देते हैं सामने
जो सालों पहले देखी थी,
जब शागिर्द बने थे पहली बार...
धूप में जलाकर साये बनाया करते थे जब आप...

कैसे लाते हैं अपनी बातों में इतना ठहराव?
कभी डायरेक्टर बन जाते हैं तो कभी लिरिसिस्ट,
या स्टोरी/स्क्रीनप्ले/डायलौग राइटर...
कभी जो एक चीज़ में
चित्त लगा लिया हो ढंग से...
लेकिन अकलमंदों के साथ 
यही समस्या रहती है...
फुदकने का टैलेंट बहुत होता है...

कवि का जामा पहन कर
तूत की शाख पर जा बैठते हैं
तो कभी फुटपाथ पर लेट जाते हैं
चाँद में रोटी ढूँढने के लिए
बुड्ढे दरिये की मुँह-ही-मुँह बड़बड़ाने की
आदत बयाँ करने लगते हैं...

अजीब चीज़ हैं ये गुलज़ार साहब भी...
सफ़ेदपोश हैं या नक़ाबपोश?

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